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९० छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ६, ८. मेरइएसु संखेज्जवासाउअत्तमिदि भणिदे सच्चं ण ते असंखेज्जवासाउआ, किंतु संखेज्जवासाउआ चेव, समयाहियंपुवकोडिप्पहुडिउवीरमआउअवियप्पाणं असंखेज्जवासाउअत्तन्भुवगमादो। कधं समयाहियपुव्वकोडीए संखेज्जवासाए असंखेज्जवासत्तं ? ण, रायरुक्खो व रूढिवलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्ससहस्स आउअविसेसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो।
___ चउग्गइसण्णिपंचिंदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणं उक्कस्सद्विदिबंधपडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणटुं देवस्स वा मणुस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा णेरइयस्स वा त्ति उत्तं । तिसु वि वेदेसु उक्कस्सहिदिबंधपडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणमित्थिवेदस्म वा पुरिसवेदस्स वा णउसयवेदस्स वा त्ति भणिदं । चरणविसेसाभावपदुप्पायणटुं जलचरस्स वा थलचरस्स वा खगचरस्स वा त्ति भणिदं । तत्व मच्छ-कच्छवादओ जलचरा, सीहै-वय-वग्घादओ थलचरा, गद्ध-ढेंक-सेणादओ खगचरा । दसणोवजोगजुत्ता उक्कस्सहिदि ण बंधति, णाणोवजोगजुत्ता चेव बंधति त्ति जाणावणटुं सागारणिदेसो कदो। सुत्तो उक्कस्सहिदि ण बंधदि, जग्गंतो प्रतिषेध किया जा चुका है ।
शंका -देव व नारकी तो संख्यातवर्षायुष्क ही होते हैं, फिर यहां उनका ग्रहण असंख्यातवर्षायुष्क पदसे कैसे सम्भव है ?
.. समाधान- इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि सचमुचमें वे असंख्यातवर्षायुष्क नहीं है, किन्तु संख्यातवर्षायुष्क ही हैं; परन्तु यहां एक समय अधिक पूर्वकोटिको आदि लेकर आगेके आयुविकल्पोंको असंख्यातवर्षायुके भीतर स्वीकार किया गया है।
शंका - एक समय अधिक पूर्वकोटिके संख्यातवर्षरूपता होते हुए भी असंख्यातवर्षरूपता कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, षयोंकि, राजवृक्ष (वृक्ष विशेष) के समान 'असंख्यातवर्ष' शब्द रूढि वश अपने अर्थको छोड़कर आयुविशेषमें रहनेवाला यहां ग्रहण किया गया है।
- चारों गतियोंके संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ देवके, मनुष्यके, तिर्यंचके अथवा नारकीके, ऐसा कहा है। तीनों ही वेदोंमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ 'स्त्रीवेदीके, पुरुषवेदीके अथवा नपुंसकवेदीके ' ऐसा कहा है। चरण अर्थात् गमनविशेषका अभाव बतलानेके लिये 'जलचरके, थलचरके अथवा नभचरके' ऐसा कहा है। उनमें मत्स्य और कच्छप आदि जीव जलचर; सिंह वक और वाघ आदि थलचर तथा गृद्ध, ढेंक और श्येन आदि नभचर जीव हैं। दर्शनोपयोगसे सहित जीव उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, किन्तु ज्ञानोपयोग युक्त जीव ही उसे बांधते हैं। इस बातके जतलानेके लिये 'साकार' पदका निर्देश किया गया है। सोया हुआ जीव उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधता है, किन्तु जागृत जीव ही
१ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'समाहिय' इति पाठः। प्रतिषु '- सदस्स', ताप्रती 'सद (६)स्स' इति पाठः। ३ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'जलचररा सीह-'; आप्रतौ 'जलचररासि सीह-' इति पाठः।
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