Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
४५ आजीविक सम्प्रदायके बहुत उल्लेख प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथोंमें पाये जाते हैं। प्रस्तुत सूचना पर से जाना जाता है कि उनका शास्त्र और सिद्धान्त जैनियोंके शास्त्र और सिद्धान्तके बहुत ही निकटवर्ती था, केवल कुछ कुछ भेद-प्रभेदों और दृष्टिकोणोंमें अन्तर था। भूमिका जैनियों
और आजीविकोंकी प्रायः एक ही थी। आगे चलकर, जान पड़ता है, जैनियोंने आजीविकोंकी मान्यताओं को अपने शास्त्रमें भी संग्रह कर लिया और इसप्रकार धीरे धीरे समस्त आजीविक पंथका अपने ही समाजमें अन्तर्भाव कर लिया। ऊपरकी सूचनामें यद्यपि टीकाकारने आजीविकोंको पाखंडी कहा है, पर उनकी मान्यताको वे अपने शास्त्रमें स्वीकार कर रहे हैं ।
परिकर्मके पूर्वोक्त सात भेद दिगम्बर मान्यतामें नहीं पाये जाते । पर इस मान्यताके जो पांच भेद चंदपण्णत्ति आदि हैं, उनमें से प्रथम तीन तो श्वेताम्बर आगमके उपांगोंमें गिनाये हुए मिलते हैं, तथा चौथा दीवसायरपण्णत्ती व जंबूदीवपण्णत्ती और चंदपण्णत्तीके नाम नंदीसूत्रमें अंगबाह्य श्रुतके भावश्यकव्यतिरिक्त भेदके अन्तर्गत पाये जाते हैं। किन्तु पांचवां भेद वियाहपण्णत्तिका नाम पांचवें श्रुतांगके अतिरिक्त और नहीं पाया जाता ।
सिद्धसेणिआ परिकम्मके १४ उपभेद १. चंदपण्णत्ती- छत्तीसलक्खपंचपदसहस्सेहि १. माउगापयाई
(३६०५०००) चंदायु-परिवारिद्धि-गइ२. एगट्टिअपयाई
बिंबुस्सेह-वण्णणं कुणइ । ३. अट्ठ या पादोदृपयाई ४. पाढोआमास या आगास' पयाई २. सूरपण्णत्ती-पंचलक्खतिण्णिसहस्सेहि ५. केउभूअं
पदेहि (५०३०००) सूरस्सायु-भोगोव६. रासिबद्धं
भोग-परिवारिद्धि-गइ-बिंबुस्सेह-दिणकिर७. एगगुणं
गुज्जोव-वण्णणं कुणइ । ८. दुगुणं ९. तिगुणं
३. जंबूदीवपण्णत्ती-तिण्णिलक्खपंचवीस१०. केउभूअं
पदसहस्सेहि ( ३२५०००) जंबूदीवे ११. पडिग्गहो
णाणाविहमणुयाणं भोग-कम्मभूमियाणं १२. संसारपडिग्गहो
अण्णेसिं च पव्वद-दह-णइ-वेइयाणं १३. नंदावत्तं
वस्सावासाकट्टिमजिणहरादीणं वण्णणं कुणइ । ११. सिद्धावत्तं
मणुस्ससणिआ परिकम्मके भी १४ भेद ४. दीवसायरपण्णत्ती- वावण्णलक्खछत्तीसहैं जिनमें प्रथम १३ भेद उपर्युक्त ही हैं। १४ पदसहस्सेहि (५२३६०००) उद्धार
१. ये पाठभेद नंदीस्त्र और समवायांगके हैं।
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