Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्लाओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
संपहि पमत्तसंजद-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघालावो अणूणो अणधिओ वत्तव्यो। मणुस्स-पजत्ताणं भण्णमाणे मिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मणुस्सोधभंगो । अथवा इत्थिवेदेण विणा दो वेदा वत्तव्वा एत्तियमेनो चेव विमेसो।
संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं. मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय. जाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों येद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पीत, पद्म और शुक्ललेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अब प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक न्यूनता और अधिकतासे रहित मूल ओघालाप कहना चाहिये, अर्थात् , गुणस्थानोंकी अपेक्षा जो आलाप छठे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कह आये हैं वे ही यहां मनुष्योंके छठे गुण. स्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके समझना चाहिये, क्योंकि छठेसे आगेके सभी गुणस्थान मनुष्योंके ही होते हैं, इसलिये सामान्य कथनमें और इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
मनुष्य-पर्याप्तकोंके आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक मनुष्य-सामान्यके आलापोंके समान आलाप जानना चाहिये । अथवा वेद आलाप कहते समय स्त्रीवेदके विना दो वेद ही कहना चाहिये, क्योंकि सामान्य मनुष्योंसे पर्याप्त मनुष्यों में इतनी ही विशेषता है।
विशेषार्थ-जब मनुष्यों के अवान्तर भेदोंकी विवक्षा न करके पर्याप्त शब्दके द्वारा सामान्यसे सभी पर्याप्त मनुष्योंका ग्रहण किया जाता है तब पर्याप्त मनुष्यों में तीनों वेद
नं. ११३
सामान्य मनुष्य संयतासंयतोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं. | ग. ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. | संज्ञि | आ.! उ.
देश. -1
सं.प.
पंचे.../ त्रस.
म. ४
अत.
मति. देश. के. द. मा.३ म. औ. सं. आहा. साका.
विना. शुभ. अव.
क्षायो.
अना.
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