Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५३२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
असंजमो, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छपत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ एत्थ सिस्सो भणदि - देवाणं पञ्जत्तकाले दव्वदो छ लेस्साओ हवंति त्ति एदं ण घडदे, सिं पत्तकाले भावदो छ - लेस्साभावादो । मा भवंतु देवाणं भावदो छ लेस्साओ दव्वदो पुण छ लेस्सा भवंति चेव, दव्त्र भावाणमे गत्ताभावादो । इदि एदमवि वयणं ण घडदे, जम्हा जा भावलेस्सा तल्लेस्सा चेव ओरालिय- वेउन्त्रिय आहारसरीरणोकम्मघरमाणघो आगच्छंति । तं कथं गव्वदित्ति भणिदे सोधम्मादिदेवाणं भावलेस्साणुरूवदव्वलेस्सापरूवणादो णव्वदि । ण च देवाणं पञ्जत्तकाले तेउ-पम्म सुक्कलेस्साओ मोत्णणलेस्साओ अस्थि, तम्हा देवाणं पज्जत्तकाले दव्वदो तेउ-पम्म सुक्कलेस्साहि होदव्यमिदि । एत्थ उवउज्जतीओ गाहाओ -
असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, ( यहां तीन अशुभ लेश्याएं अपर्याप्तकाल की अपेक्षा जानना चाहिये । ) भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं सामान्य देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - आदिके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योगः स्त्री और पुरुष ये दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती हैं ।
शंका- यहां पर शिष्य कहता है कि देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे छहीं लेश्याएं होती हैं यह वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उनके पर्याप्तकालमें भावसे छहों लेश्याओंका अभाव है । यदि कहा जाय कि देवोंके भावसे छहों लेश्याएं मत होवें, किन्तु द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती ही हैं, क्योंकि द्रव्य और भावमें एकताका अभाव अर्थात् भेद है। सो ऐसा कथन भी नहीं बनता है, क्योंकि, जो भावलेश्या होती है, उसी लेश्यावाले ही औदारिक, वैकियिक और आहारकशरीरसंबन्धी नोकर्म परमाणु आते हैं। यदि यह कहा जाय कि उक्त बात कैसे जानी जाती है, तो उसका उत्तर यह है कि सोधर्म आदि कल्पवासी देवोंके भावलेश्य के अनुरूप ही द्रव्य लेश्याका प्ररूपण किये जानेसे उक्त बात जानी जाती है । तथा देवोंके पर्याप्तकालमें तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्याओंको छोड़कर अन्य लेश्याएं होती नहीं है, इसलिये देवोंके पर्याप्तकाल में द्रव्यकी अपेक्षा भी तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होना चाहिये । इस प्रकरणमें निम्न गाथाएं उपयुक्त हैं
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