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१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सम्मत्त-आलाववण्णणं [८१३ सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, पंच संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ; देवगदि-मणुसगदी । कदकरणिज्ज वेदगसम्माइहिं पडुच्च णिरय-तिरिक्खगईओ लभंति। पंचिंदियजादी, तसकाओ,
तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतलम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, असंयम देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये पांच संयम; आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये दो गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां होती हैं, क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्तकालमें देवगति और मनुष्यगति तो पाई ही जाती हैं, किन्तु कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षासे नरकगति और तिर्यचगति भी पाई जाती हैं। पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अपर्याप्तकालभावी चार
नं. ४८४
वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. । ले. [म. स. संझि.] आ. | उ. |४१६१०/४/४|१|१, ११ ३ ४ ४ - ५। ३ द्र.६/११ ११ २ अवि. पं. न. म.४ | मति. असं.के. द. मा.६ भ. क्षायो- सं. आहा. साका. श्रुत. देश. विना.
अना. औ.१
अव. सामा. मनः. छेदो.
परि.
से.
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