Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 504
________________ १,१. ] संत- परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त आलाववण्णणं [ ८११ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, इत्थवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण जहण्णकाउ-तेउ पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । खइयसम्माइट्ठीणं संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, खइयसम्मतं, उन्हीं क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणका योग ये तीन योग; स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक) साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशविरत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, नं. ४८१ गु. १ १ अवि. सं. अ. अ. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. जी. प. प्रा. सं.ग.) इं. का. यो. वे.] क.) शा. संय. द. ४ १ १ ३ २ ४ દ ७ ३ १ ३ २ पं. त्र. औ.मि. पु. द्र. २ १ १ १ २ मति. असं. के. द. का.शु. भ. क्षा. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. भा. ४ अना. अना. वै.मि. न. कार्म. अव. क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप. Jain Education International For Private & Personal Use Only का. तेज. पद्म. शुक्र. www.jainelibrary.org

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