Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 530
________________ १, १. ] संत- परूवणाणुयोगद्दारे आहार - आलाववण्णणं [ ८३७ सिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणड्डाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, एगारह जोग, ओरालिय-वेउन्त्रिय आहार मिस्स-कम्मइयकायजोगा णत्थि । तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अड्ड णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अस्थि, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा । ५१८ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि पंच गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपजतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दोण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि उन्हीं आहारक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर -- आदिके तेरह गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पांचों जातियां, छद्दों काय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग होते हैं, क्योंकि, यहांपर औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग नहीं होते हैं। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक तथा संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं। उन्हीं आहारक जीवों के अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण, दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी नं. ५१८ गु. जी. प. प्रा. सं.ग. इं. का.) ४ ४ ५ ६ १३ ७ १० मि. पर्या. ५ ९ ४ से. पयो. Jain Education International ८ आहारक जीवोंके पर्याप्त आलाप. ७ I ११म.४ व. ४ औ. १ यो. वे (क. ज्ञा. (सं.) द. ले. भ.स.संज्ञि. आ. ૪ ८ ७ ४ द्र. ६.२ ६ २ १ मा. ६ भ. अ. वै. १ आ. १ For Private & Personal Use Only उ. २ सं. आहा. साका. असं. अनु. अना. तथा. यु. उ. www.jainelibrary.org

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