Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 566
________________ पृ० १५७ ४११ ४३५ ४४८ पं० २ ४ ८ Jain Education International (१५) ५ विशेष टिप्पण ( पुस्तक १ ) 66 ण च संतमत्थमागमेो ण परूवेह तस्स अत्थावयत्तप्पसंगादो आये हुए 'अत्थावयत्तत्पसंगादो' का अर्थ 'अर्थापदत्व अर्थात् अनर्थकपदत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ' ऐसा किया गया है । जयधवला अ. प्र. पृ. ५१२ में भी 'ण च संतमत्थं ण परुवेदि सुत्तं, तस्स अव्वावयत्तदोसप्पसंगादो' इस, प्रकारका वाक्य पाया जाता है। जिसमें आये हुए 'अव्वावयत्तदोसप्प संगादो का अर्थ 'अव्यापकत्वदोषका प्रसंग प्राप्त हो जायगा' होता है। धवलाके पाठसे जयधवलाका पाठ शुद्ध प्रतीत होता है । ( पुस्तक २ ) पदासं विधिं पुध पुध उवसंदरिसणा परूवणा । जयध. अ. पृ. ६३१. उदीरणाए चेव उदयो उदीरणोदओ त्ति । जयध. अ. पृ. ५२६. "5 इस पंक्तिके अनुसार 'उदीरणामें ही होनेवाले उदयको उदीरणोदय कहते हैं' ऐसा अर्थ होता है । परन्तु हमने अर्थ करते समय उदीरणोदयका उदीरणा तथा उदय ऐसा अर्थ किया है। इसका कारण यह है कि आठवें, गुणस्थानके अन्तिम समयमें भय प्रकृतिकी उदीरणा व्युच्छित्ति तथा उदय व्युच्छित्ति होती है । १ 'णिरया किण्हा ' गो. जी. ४९६. णेरइया णं भंते! सब्वे समवन्ना ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । से केणट्टेणं भंते! एवं वुञ्चइ - नेरइया नो सव्वे समवन्ना । गोयमा ! णेरड्या दुविह पन्नत्ता, तं जहा - पुव्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते पुग्वोववन्नगा ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा । प्रज्ञा. १७.१.३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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