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८२२] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१,१ तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दसण, दब्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
उवसमसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, मणपज्जवणाणेण सह उवसमसेढीदो ओयरिय पमत्तगुणं पडिवण्णस्स उवसमसम्मत्तेण सह मणपज्जवणाणं लब्भदि, ण मिच्छत्तपच्छागद-उवसमसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदस्स; तत्थुप्पत्ति-संभवाभावादो । दो संजम, परिहारसंजमो णत्थि । कारणं, ण ताव मिच्छत्तपच्छागद-उवसमसम्माइट्ठि-संजदा
औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियः जाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग थे नौ योग; तीनों घेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टिके मनःपर्ययज्ञा । होता है इसका कारण यह है कि मनःपर्ययज्ञानके साथ उपशमश्रेणीसे उतरकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके औपशमिकसम्यक्त्वके साथ मनःपर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवके मनःपर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है। क्योंकि, प्रथमोशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतके मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति संभव नहीं है। ज्ञान आलापके आगे सामायिक, और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है। इसका कारण यह है कि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि संयत जीव तो परिहारविशुद्धिसंयमको प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि, सर्वोत्कृष्ट भी
नं. ४९८
उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप.. | गु. जी. प. प्रा.सं.) ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
देश.सं.प.
पं.त्र.
म.४
व.४
| मति. देश. के. द. मा.३ भ. औप. सं. आहा. साका.
विना. शुम. अव.
अना.
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