Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

View full book text
Previous | Next

Page 514
________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलाववण्णणं [८२१ जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा। तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। उवसमसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्वारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, काययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अंपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं; भव्य. सिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और नं. ४९७ उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे.' क. झा. | संयः । द. ले. (म. स. | संनि.| आ. उ. । अ. दे. पं. त्र. वै.मि. पु. मति. | असं. के. द. का. म. औप. सं. आहा. साका. कामें. । श्रत. विना. शु. अना. अना. अव. अवि. - सं.अ.0 भा.३ शुभ. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568