Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.]
संत-परवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलावषण्णणं [ ८१९ कसाय उवसंतकसाओ वि अत्थि, चत्तारि णाण, छ संजम, तिण्णि देसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण तिपिण सुहलेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
उपशान्तकषायस्थान भी है, आदिके चार शान, परिहारविशुद्धिसंयमके विना शेष छह संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक; औपशमिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अधिरतसम्यग्दृष्टि गणस्थान, एक संश्री-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण.चारी संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये नों योगः पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत
और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्य, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४९३
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. संलि. | आ.। उ.
म. ४
सं.प.
उप. सं.
'lable
उप. क. <J
मति. परि. के.द. मा. ६ म. औप. सं. आहा. | साका. श्रुत. विना. विना. अव. मनः.
स. संलि. आ.
नं. ४९४
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं.ग.। इं.का. यो. वे. क. झा. संय. द. ले. भ.
१६अ.७४ अवि. सं.अ.
मति. असं. के.द. का. म.
विना. शु. अव.
शुभ.
औप. सं. आहा. साका.
अना.बना.
काम.
श्रत.
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