Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 505
________________ ८१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,१. सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। खइयसम्माइट्ठीणं पमत्तसंजदप्पहुडि सिद्धावसाणाणं मूलोघ-भंगो। णवरि सव्वत्थ खइयसम्मत्तं चेव वत्तव्यं । ___ वेदगसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जसीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, पंच संजम, तिण्णि दसण, दन्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सिद्ध जीवों तकके प्रत्येक स्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप मूल ओघ आलापके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि सम्यक्त्व आलाप कहते समय सर्वत्र एक क्षायिकसम्यक्त्व ही कहना चाहिए। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक चार गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, असंयम, देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये पांच संयम, आदिके नं. ४८२ क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप. य. जी.प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. | क. | झा. | संय. | द. | ले. भ. | स. संलि. आ. | उ. | सं. प. मति. देश.के.द.भा.३/म. | क्षा. श्रुत.! विना. शुभ. सं. आहा.साका. अना. अव. नं.४८३ वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. |गु. जी. प. प्रा.सं. ग. ई.का. यो. वे.क./ ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. सलि. आ. | उ. | ४२ ६५.१०४|४|१११५ ३ ४ ४ ५ ३ द्र.६११ २ २ अवि.सं. प.६अ.७ पं.त्र. | मति असं. के.द.भा.म. क्षायो | सं. आहा. साका. से. सं. अ. श्रुत. देश. विना. अना. अना. अप्र. अव. सामा. मनः छेदो. परि. -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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