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छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[ १, १. तेऊ तेऊ तेऊ पम्मा पम्मा य पम्म-पुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेस्ससमासो मुणेयव्वो ॥२२६॥ तिण्हं दोण्हं दोण्हं छहं दोण्हं च तेरसण्हं च ।
एत्तो य चोदसण्हं लेस्साभेदो मुणेयवो ॥ २२७ ॥ एत्थ परिहारो उच्चदे–ण ताव एदाओ गाहाओ तो पक्खं साहेति, उभय-पक्खसाधारणादो । ण तो उत्त-जुत्ती वि घडदे, ण ताव अपजत्तकालभावलेस्समणुहरइ दव्यलेस्सा, उत्तमभोगभूमि-मणुस्साणमपजत्तकाले असुह-ति-लेस्साणं गउरवण्णाभावापत्तीदो । ण पज्जत्तकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्त-दव्यलेस्सा, छबिह-भावलेस्सासु परियट्टत-तिरिक्ख-मणुसपज्जत्ताणं दधलेस्साए अणियमप्पसंगादो । धवलवण्ण-वलायाए
तीनके तेजोलेश्याका जघन्य अंश, दोके तेजोलेश्याका मध्यम अंश, दोके तेजोलेश्याका उत्कृष्ट एवं पद्मलेश्याका जघन्य अंश, छहके पद्मलेश्याका मध्यम अंश, दो के पद्मलेश्याका उत्कृष्ट एवं शुक्ल लेश्याका जघन्य अंश, तेरहके शुक्ललेश्याका मध्यम अंश तथा चौदहके परमशुक्ललेश्या होती है। इस प्रकार तीनों शुभ लेश्याओंका भेद जानना चाहिये ॥ २२६,२२७॥
विशेषार्थ-भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क इन तीन जातिके देवोंके जघन्य तेजोलेश्या होती है । सौधर्म और ऐशान इन दो स्वर्गवाले देवोंके मध्यम तेजोलेश्या होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र इन दो स्वर्गवाले देवोंके उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है। ब्रह्मा, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट. छाक और महाशक इन छह स्वर्गवा पद्मलेश्या होती है। शतार और सहस्रार इन दो स्वर्गवालोंके उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयक इन तेरह विमानवालोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है। इसके ऊपर नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानवालोंके उत्कृष्ट या परमशुक्ललेश्या होती है।
समाधान-शंकाकारकी पूर्वोक्त शंकाका अब परिहार कहते हैं-उपर कही गई ये गाथाएं तो तुम्हारे पक्षको नहीं साधन करती हैं, क्योंकि, वे गाथाएं उभय पक्षमें साधारण अर्थात् समान हैं। और न तुम्हारी कही गई युक्ति भी घटित होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकालमें होनेवाली भावलेश्याका तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्तकालमें अशुभ तीनों लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियां मनुष्योंके गौर वर्णका अभाव प्राप्त हो जायगा। इसीप्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त-जीवसंबन्धी द्रव्यलेश्या भावलेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है। क्योंकि, वैसा मानने पर छह प्रकारकी भावलेश्याओंमें निरन्तर परिवर्तन करनेवाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्योंके द्रव्यलेश्याके अनियम
१ गो. जी. ५३५. परं तत्र चतुर्थचरणस्त्रयम्-भवणतिया पुण्णगे असुहा' । प्रतिषु प्रथमपंक्तौ । तेउ तेउ तह तेऊ पम्मं पम्मा य' इति पाठः
२ गो. जी. ५३४. परं तत्र चतुर्धचरणस्त्वयम्-' लेस्सा भवणादिदेवाण ।
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