Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१. १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [ ५६७ दसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहि तत्थ णियमेण होदव्यं, मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमारुहणजोगत्तणेहि भेददंसणादो। उवसमसेढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देवेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेति, तत्थतणुवसमसम्मत्तकालादो छ-पज्जत्तीण समाणकालस्स बहुत्तुवलंभादो । तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमत्थि त्ति सिद्धं । सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति
अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों में नियमसे होना चाहिए । सो भी कहना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि, संयमको धारण करनेकी तथा उपशमश्रेणीके समारोहण आदिकी योग्यता मनुप्योंके ही होनेके कारण अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें और मनुष्योंमें भेद देखा जाता है । तथा उपशमश्रेणी में मरण करके औपशमिक सम्यक्त्वके साथ देवों में उत्पन्न होनेवाले जीव औपशमिक सम्यक्त्वके साथ छह पर्याप्तियोंको समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्थामें होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्वके कालसे छहों पर्याप्तियोंके समाप्त होनेका काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंके पर्याप्तकालमें औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है।
विशेषार्थ-उपशमसम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक सम्यक्त्वसे पुनः औपशमिक सम्यक्वको प्राप्त नहीं होता है किंतु यदि उसके मिथ्यात्वका उदय हो जाये तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है, यदि सम्यग्मिथ्यात्वका उदय हो जावे तो सम्यग्मिथ्यादष्टि हो जाता है, यदि सम्यक्प्रकृतिका उदय हो जाये तो वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है और यदि अनन्तानुबन्धीमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय हो जावे तो सासादनसम्यग्दृष्टि हो जाता है। इस नियमके अनुसार नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरोंमें उत्पन्न हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव फिरसे उपशमसम्यक्त्वको तो ग्रहण कर नहीं सकता है और मिथ्यात्व गुणस्थान उसके होता नहीं है, क्योंकि, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर उसके दूसरे कोई गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं, इसलिए मिथ्यात्वसे भी पुनः वह उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण नहीं कर सकता है। वेदकसम्यक्त्वसे कदाचित् उसके उपशमसम्यक्त्व माना जाय सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्वसे उपशमश्रेणीके सन्मुख मनुष्योंके ही उपशम (द्वितीयोपशम) सम्यक्त्व होता है अन्य गतियों में नहीं। तथा पूर्व पर्यायसे आया हुआ उपशमसम्यक्त्व अपर्याप्त अवस्थामें ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके कालसे छह पर्याप्तियोंके पूरा करनेका काल अधिक होता है। इसप्रकार इतने कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरों में उत्पन्न हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव नियमसे वेदकसम्यग्दृष्टि ही हो जाता है और जो वेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है वह भी अन्त तक
१ प्रतिषु 'छ-पजत्तीओ' इति पाठः। २ उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमतो दु समयमेत्तो ति । अवसिढे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥ अंतोमुहत्तमद्धं सब्बोवसमेण होदि उवसंतो। तेण परं उदओ खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ॥
ल. क्ष. १००, १०२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org