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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
ओरालियमिस्सयकायजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदंसणं, दव्त्रेण काउलेस्सा, मूलसरीरस्स छ लेस्साओ संति ताओ किण्ण उच्चति त्ति भणिदे ण, चोहस-रज्जु-आयामेण सत्त-रज्जु - वित्थारेण एक-रज्जुमार्द काढूण वडिद - वित्थारेण बारिद-जीव पदेसाणं पुव्त्रसरीरेण संखेज्जंगुलोगाहणेण संबंधाभावादो । भावे वा जीवपदेस - परिमाणं सरीरं होज । ण च एवं, वैधहरस्सर सरीरस्स तेत्तियमेतद्भाणपसरण -सत्ति - अभावादो, ओरालिय मिस्सकायजोगण्णहाणुववत्तीदो वा । ण चिराण- सरीरेण कवाडगद - केवलिस्स संबंधो अस्थि । भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं णेव नहीं पाई जाती है, इसलिये मनःप्राण नहीं माना गया है ।
प्राण आलापके आगे क्षीणसंज्ञास्थान, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, अपगतवेदस्थान, अकषायस्थान, केवलज्ञान, यथाख्यातविद्यारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, और द्रव्यसे कापोत लेश्या होती है ।
शंका-सयोगिकेवली के मूलशरीरकी तो छहों लेश्याएं होती हैं, फिर उन्हें यहां क्यों नहीं कहते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, कपाटसमुद्घातके समय चौदह राजु आयाम ( लम्बाई ) से और सात राजु विस्तार से अथवा चौदह राजु आयामसे और एक राजुको आदि लेकर बढ़े हुए विस्तारसे व्याप्त जीवके प्रदेशोंका संख्यात अंगुलकी अवगाहनावाले पूर्व शरीर के साथ संबन्ध नहीं हो सकता है। यदि संबन्ध माना जायगा, तो जीवके प्रदेशों के परिमाणवाला ही औदारिक शरीरको होना पड़ेगा । किन्तु ऐसा हो नहीं सकता; क्योंकि, विशिष्ट बंधको धारण करनेवाले शरीरके पूर्वोक्त प्रमाणरूपसे पसरने (फैलने) की शक्तिका अभाव है । अथवा, यदि मूलशरीर के कपाटसमुद्धात प्रमाण प्रसरणशक्ति मानी जाय तो फिर उनकी औदारिकमिश्रकाययोगता नहीं बन सकती है । तथा कपाट समुद्धातगत केवलीका पुराने मूलशरीर के साथ संबन्ध है नहीं, अतएव यही निष्कर्ष निकलता है कि सयोगिकेवलीके मूलशरीर की छहीं लेश्याएं होनेपर भी कपाटसमुद्धात के समय उनका ग्रहण नहीं किया जा सकता है । किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग होनेके कारण एक कापोतलेश्या ही कही गई है ।
विशेषार्थ — पूर्वाभिमुख केवलीके समुद्धात करने पर कपाटसमुद्धातमें जीवके प्रदेश ऊपर और नीचे चौदह राजुप्रमाण होते हैं और उत्तर दक्षिण सात राजु फैल जाते हैं। तथा उत्तराभिमुख केवलीके कपाटसमुद्धात के समय ऊपर और नीचे चौदह राजुप्रमाण होते है और पूर्व पश्चिम एक राजुको आदि लेकर बढ़े हुए विस्तार के अनुसार फैल जाते हैं, परंतु मूलशरीर संख्यात अंगुलकी अवगाहना प्रमाण ही होता है, इसलिये मूलशरीरक लेश्या औदारिकमिश्रकाययोगमें नहीं ली जा सकती है। किन्तु उस समय जो नोकर्मवगणाएं आती हैं उन्हींकी लेश्या ली जायगी । अतः केवलीके औदारिक मिश्रकाययोग की अवस्था में द्रव्यसे कापोतलेश्या कही है ।
१ प्रतिषु ' ए बंधहरस्स ' इति पाठः ।
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