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६९८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
णउंसयवेद-पमत्तसंजदप्पहुडि जाव पढम-अणियट्टि ति ताव इत्थिवेद-भंगो । णवरि सव्वत्थ णउंसयवेदो वत्तव्यो।।
अवगदवेदाणं भण्णमाणे अत्थि छ गुणहाणाणि अदीदगुणहाणं पि अस्थि, दो जीवसमासा अदीदजीवसमासो वि अस्थि, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ अदीदपज्जत्ती वि अस्थि, दस पाण चत्तारि पाण दो पाण एग पाण अदीदपाणो वि अत्थि, परिग्गहसण्णा खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी सिद्धगदी वि अस्थि, पंचिंदियजादी अणिदियत्तं पि अत्थिं, तसकाओ अकायत्तं पि अत्थि, एगारह जोग अजोगो वि अत्थि, अवगदवेदो,
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नपुंसकवेदी जीवोंके प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागतकके आलाप स्त्रीवेदी जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि वेद आलाप कहते समय सर्वत्र एक नपुंसकवेद ही कहना चाहिए।
अपगतवेदी जीवोंके आलाप कहने पर-अनिवृत्तिकरणके अवेद भागसे लेकर अन्तके छह गुणस्थान और अतीतगुणस्थान भी होता है, संज्ञा-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमास स्थान भी होता है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां तथा अतीतपर्याप्तिस्थान भी होता है, दशों प्राण, चार प्राण, दो प्राण, एक प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी होता है, परिग्रहसंज्ञा तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी होता है, मनुष्यगति तथा सिद्धगति भी होती है, पंचेन्द्रियजाति तथा अतिन्द्रियस्थान भी होता है, त्रसकाय तथा अकायस्थान भी होता है, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग और अयोगस्थान भी होता है, अपगतवेद, चारों कषाय
१ प्रतिषु पंचिंदिय अणिट्टियत्तं अत्थि ' इति पाठः ।
नं. ३३०
नपुंसकवेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ह. का. यो. / वे. क. ना. | संय. द. ले. भ.
स. संज्ञि. आ. | उ. |
देश. 04
पंचे... वस. -
. सं.प.
ति.
म.४ न.
मति. देश. के. द. भा.३ भ.
विना. शुभ- अव.
औप. सं. आहा. साका. क्षा..
अना. क्षायो.
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