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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं
[७१५ पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दमण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
३"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्म,
चार प्राण तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां' पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी
और अनाकारोपयोगी होते हैं। • उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके दो गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां, दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिका
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नं. ३५३
मति-श्रुत अज्ञानी जीवोंके पर्याप्त आलाप. प्रा. सं. ग.) इं. | का. यो. (वे. क.सा. | संय. द. | ले. । म. स. संझि. आ. | उ. १.४४५ |६|१०|३४|२१२ द.६२२२१२
कुम. असं. चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा- साका.
अ.सा. असं.
अना.
म.४
।
क
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