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१, १.]
संत-परूबणाणुयोगद्दारे संजम - आळाबवण्णणं
[ ७३३
सामाइय सुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छपजतीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, सामाइयसुद्धिसंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेज- पम्म- सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
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पसंद पहुडि जाव अणियट्टित्ति ताव मूलोघ भंगो । एवं छेदोवडावणसंजमस्स वि वत्तव्यं ।
परिहारसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि दो गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ
सामायिक शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये चार गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनायोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक शुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सामायिक शुद्धिसंयतों के आलाप मूल ओघालापके समान हैं । विशेष बात यह है कि संयम आलाप कहते समय एक सामायिकशुद्धिसंयम ही कहना चाहिए । इसीप्रकार छेदोपस्थापना. संयमके भी आलाप जानना चाहिए; किन्तु संयम आलाप कहते समय एक छेदोपस्थापनासंयम ही कहना चाहिए ।
परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये
नं. ३७५
| गु. | जी. ४ प्र. २ ६ | १०४
अप्र. सं.प. प. ७
अपू. सं.अ. ६ अनि..
अ.
सामायिक शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप.
| प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द.
१ | ११म. ४ | ३ | ४
१ म.पं.
व. ४
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ले. म. स. संज्ञि. आ. उ.
४ मति. १ ३ द्र. ६१ ३ १ १ २ श्रुत. सामा, के. द. भा. ३ भ. ओप. सं. आहा. साका. विना. शुभ.
अव.
अना.
मनः.
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क्षा. क्षायो.
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