Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 463
________________ ७७. ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १. पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। ___ "तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, णqसयवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, पंच गुणस्थान, एक संशी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसम्बंधी ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवल ज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं तेजोलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचोन्द्रयजाति, प्रसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चारों योग, नपुंसकवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार पांच ज्ञान, नं. ४२३ तेजोलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. | द. ल. भ. | स. संज्ञि. आ. | उ. 1 १६१०४ | ३१/१११म.४३४ ७ ५ असं. ३ | द्र.६ २६।११ मि. सं.प. ति. पं. त्र. व. ४ केव. देश. के.द. भा.१ भ. सं. आहा. साका. औ.१ विना. सामा. विना. ते. अ. । छेदो. आ.१ परि.. E अना. अप्र. नं.४२४ तेजोलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. | आ. । उ. । | ४ | ३ ६अ./७४ २११४ २४ ५ ३ ३ द्र.२२ ५१ २२ दे. पं. . औ.मि. पु.। कुम. असं. के.द. का. म. सम्य. सं. आहा. साका. वै.मि. स्त्री. कुश्रु. सामा. विना. शु. अ. विना अ ना| अना. आ.मि. मति. छेदो. प्रम. कार्म. श्रुत. अवि. भा. अव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568