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७९०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सुक्कलेस्साणं भण्णमाणे अत्थि अजोगि विणा तेरह गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीआ, दस पाण सत्त पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि आत्थ, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुकलेस्सा; भवसिद्धिया। अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
रिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना
और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पालेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अयोगिकेवली गुणस्थानके विना आदिके तेरह गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण तथा सयोगिकेवलीकी अपेक्षा चार प्राण और दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी होता है, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचे. न्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी होता है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छड़ों सम्यक्त्व, संशिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं। नं. ४५४
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप. । गु.। जी. प. प्रा.सं. ग. इ. का. यो. वे.क. ज्ञा. (संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. | |१३ २ ६ प. १० ४ ३ १ १ १५ ३४ ८ ७ ४ द्र.६/२ ६. १ | २ २ अयो.सं. प. ६ अ.
भा.१ म. सं. आहा. साका. विना.सं.अ.
शु. अ. अनु. अना. अना.
तथा.
क्षीणसं. .
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अकषा.
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