Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलाववण्णणं
[८.१ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। णेव-भवसिद्धिय-णेव-अभवसिद्धियाणमोघ-भंगो।
एवं भवियमग्गणा समत्ता। सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगारह गुणहाणाणि अदीदगुणट्ठाणं पि अत्थि, वे जीवसमासा अदीदजीवसमासा वि अस्थि, छ पजत्तीओ छ
उन्हीं अभव्यसिद्धिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्याडष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक विकल्पोंसे रहित सिद्ध जीवोंके आलाप ओघ आलापके समान जानना चाहिए।
___ इसप्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक ग्यारह गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी है, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमास.
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नं. ४७२
अभव्यसिद्धिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा.
. ई.का./ यो. वे. ! क. ला. संय. द. ले. म. स. सहि. | आ.। २।७६अ./७४ ४ ५ ६ ३ ३ ४ २ १२ द्र.२११२ | २
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