Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७६९ छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विशेषार्थ-गोमट्टसार जीवकाण्डके अन्तमें आलाप अधिकारके ऊपर पं. टोडरमल्लजी ने जो संदृष्टियां दी हैं उनमें इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा असंशी पंचेन्द्रियके पर्याप्त अवस्थामें चार लेश्याएं, तेजोलेश्याके आलाप बताते हुए तेजोलेश्यामें संशी-पर्याप्त और अपर्याप्तके अतिरिक्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास और संज्ञीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंशियोंके चार लेश्याएं बतलाई हैं। परंतु जिस आलाप अधिकारके अनुसार पंडितजीने ये संदृष्टियां संग्रहीत की हैं उसमें केवल संज्ञीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए ही असंशियोंके चार लेश्याएं बतलाई हैं। किन्तु इन्द्रियमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंशियोंके तीन अशुभ लेश्याएं और तेजोलेझ्याके आलाप बतलाते हुए संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो ही जीवसमास बतलाये हैं। किन्तु धवलामें सर्वत्र असंक्षियोंके तेजोलेश्याका अभाव या तेजोलेश्यामें असंक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमासका अभाव ही बतलाया है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि गोमट्टसार जीवकाण्डमें संशीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंक्षियोंके जो चार लेश्याएं बतलाई हैं वह कथन धवलाकी मान्यताके विरुद्ध है। परंतु गोमट्टसार जीवकाण्डके मूल आलाप अधिकारमें ही जो दो मान्यताएं पाई जाती हैं उसका कारण क्या होगा, इसका ठीक निर्णय समझमें नहीं आता है। एक बात अवश्य है कि पंडित टोडरमल्लजीने सर्वत्र एक ही मान्यता अर्थात् असंशियोंके तेजोलेश्या या तेजोलेश्यामें असंक्षीपंचे. न्द्रिय-पर्याप्त जीवसमासको स्वीकार कर लिया है, इसलिये उनके सामने सर्वत्र उक्त मान्यताका पोषक ही पाठ रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यदि पंडितजीने मूलमें दिये गये संक्षीमार्गणाके निर्देशके अनुसार ही सर्वत्र सुधार किया होता तो कहीं न कहीं उन्होंने उसका संकेत अवश्य किया होता । जो कुछ भी हो, फिर भी यह प्रश्न विचारणीय है।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके सात
नं. ४२२
तेजोलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.| का. यो. वे. क. ज्ञा.। संय. द. । ले.
भ. स. संशि. आ.
उ.
ति.पं. त्र.
| मि. सं. प. ६अ. ७
से.सं.अ. अप्र.
A
केव. सूक्ष्म. के. द. मा. १ भ. विना. यथा. विना. ते.
विना.
सं. आहा. साका.
अना. अना.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org