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७१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ('सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।) उवसंतकसायप्पहुडि जाव सिद्धा त्ति ओघ-मंगो।
एवं कसायमग्गणा समत्ता । णाणाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगा।
"मदि-सुदअण्णाणीणं भण्णमाणे अस्थि दो गुणट्ठाणाणि, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त
संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
__ अकषायी जीवोंके उपशान्तकषाय गुणस्थानसे लगाकर सिद्ध जीवोंतकके प्रत्येक स्थानके आलाप ओघालापके समान जानना चाहिए ।
इसप्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। शानमार्गणाके अनुवादसे ओघालाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए।
मतिःश्रुत-अज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण;
१ प्रतिषु कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति ।
नं. ३५२
मति श्रुत-अज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं.का. यो. वे. क. सा. | संय. द. ले. भ. स. संझि.) आ. उ. | २/१४६५.२०,७|४|४|५६ | १३ |३|४२ १ २ द्र.६/२/२ | २ | २ | २
आ.द्वि. कुम. असं. चक्षु. भा. ६)भ. | मि. | सं. | आहा. साका. विना.. कुध. | अच. अ. सासा. असं. अना. अना.
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