Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
पच्छायद-उवसमसम्माइट्ठिम्मि मणपज्जवणाणं ण उवलब्भदे; मिच्छत्तपच्छाय दुक्कस्वसमसम्मकालादो चि गहियसंजम पढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुष्पायणसंजमकालस्स वहुत्तुवलंभादो । सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारु
७२८ ]
वेदकसम्यक्त्वसे पीछे द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस उपशमसम्यग्दाष्टके प्रथम समय में भी मन:पर्ययज्ञान पाया जाता है । किन्तु मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दष्टिके उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वके कालसे भी ग्रहण किये गये संयमके प्रथम समयसे लगाकर सर्व जघन्य मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला संयमकाल बहुत बड़ा 1
विशेषार्थ - ऊपर मन:पर्ययज्ञानीके तीनों सम्यक्त्व बतलाये गये हैं । क्षायिक और क्षायोपशमिकसम्यक्त्वके साथ तो मन:पर्ययज्ञान इसलिये होता है कि मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति में जो विशेष संयम हेतु पड़ता है वह विशेष संयम इन दोनों सम्यक्त्वों में हो सकता है । अब रही औपशमिकसम्यग्दर्शनकी बात, सो उसके प्रथमोपशमसम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व ऐसे दो भेद हैं । उनमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको अनादि अथवा सादि मिथ्या
ही उत्पन्न करता है और उसके रहनेका जघन्य अथवा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । यह अन्तर्मुहूर्त काल, संयमको ग्रहण करनेके पश्चात् मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेके योग्य संयममें विशेषता लानेके लिये जितना काल लगता है उससे छोटा है । इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकने के कारण मन:पर्ययज्ञानके साथ उसके होनेका निषेध किया गया है । द्वितीय। पशमसम्यक्त्व उपशमश्रेणी के अभिमुख विशेष संयमी ही होता है, इसलिये यहांपर अलगले मन:पर्ययज्ञानके योग्य विशेष संयमको उत्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है और यही कारण है कि द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें भी मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है । अथवा जिस संयमीने पहले वेदकसम्यक्त्वके कालमें ही मन:पर्ययज्ञानको ग्रहण कर लिया है उसके भी उपशमश्रेणी अभिमुख होनेपर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये भी द्वितीयोपशमसम्क्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में मन:पर्ययज्ञान पाया जा सकता है । ऊपर ढोका में ' पढमसमए वि' में जो अपि शब्द आया है उससे यह ध्वनित होता है कि द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके द्वितीयादिक समयमें वर्द्धमान चारित्र रहता है, इसलिये वहां तो मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो ही सकता है, किन्तु प्रथम समय में भी संयममें इतनी विशेषता पाई जाती है कि वह मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हो सकता है। इस कथनका तात्पर्य यह हुआ कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अनन्तर या उसके साथ संयमकी उत्पत्ति होती है, इसलिये उसमें तो मनःपर्ययज्ञान नहीं उत्पन्न हो सकता है । परंतु द्वितीयो - पशमसम्यक्त्व संयमीके ही होता है, इसलिये उसमें मन:पर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेमें कोई विरोध नहीं है । इसप्रकार मन:पर्ययज्ञानके साथ तीनों सम्यक्व तो होते हैं, किन्तु औपश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org