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०२.] छक्खंडागमे जीवाणं
[१,१. तेसिं चेव अपज्जताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणहाणााण, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, वसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, तिण्णि संजम, तिणि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तीण सम्मनं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
आभिणिबोहिय-सुदणाण-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं,
___ उन्हीं आभिनिबोधिक और श्रुतमानी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परअविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये दो गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग ये चार योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, मति और श्रुत ये दो ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। _ आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारकद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, माति और श्रुत ये दो शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं,
नं. ३६६
मति-श्रुतशानी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. . जी.प.प्रा.सं. ग. ई.का.
। संय. द. ले. भ. स. संलि . आ. | उ |२१६७४ ४११ ४२४ २ ३३ द.२१ ३१२ २ अवि..
पं. स. औ.मि. पु. मति. असं. के.द. का. भ. औप. सं. आहा. साका.
वै. मि.न. श्रुत. सामा. विना. शु. क्षा. अना. अना. आ.मि.
छेदो.
भा.६ क्षायो, कार्म
सं.अ.
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