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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं [६६७
आहारकायजोगाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहारकायजोगो, पुरिसवेदो, इत्थि-णउंसयवेदा णत्थि । किं कारणं ? अप्पसत्थवेदेहि सहाहारिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति । चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, मणपज्जवणाणं णत्थि । कारण, आहार-मणपज्जवणाणाणं सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहादो। दो संजम, परिहारसुद्धिसंजमो णत्थि; एदेण वि सह आहारसरीरस्स विरोहादो। तिण्णि दंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, उवसमसम्मत्तं णत्थि; एदेण वि सह विरोधादो। सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा“ ।
___ आहारककाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर--एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग, एक पुरुषवेद होता है तथा स्त्री और नपुंसकवेद नहीं होते हैं।
शंका-आहारककाययोगी जीवोंके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके नहीं होनेका क्या कारण है ?
समाधान-क्योंकि, अप्रशस्त वेदोंके साथ आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है।
वेद आलापके आगे चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान होते हैं। मनःपर्ययज्ञानके नहीं होनेका यह कारण है कि आहारकऋद्धि और मनःपर्ययज्ञानका सहानवस्थानलक्षण विरोध है अर्थात् ये दोनों एक साथ एक जीवमें नहीं रहते हैं। ज्ञान आलापके आगे सामायिक
और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं परंतु परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है; क्योंकि, इसके साथ भी आहारकशरीरका विरोध है। संयम आलापके आगे आदिके तीनों दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व होते हैं, परंतु उपशमसम्यक्त्व नहीं होता है; क्योंकि, इसके साथ भी आहारकशरीरका विरोध है। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। १ मणपज्जवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोणि आहारा । एदेसु एकपगदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे॥
गो. जी. ७२८. नं २८८
आहारककाययोगी जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. |वे. क. बा. संय. द. | ले. भ. स. संनि. आ. . ११६ १०४ १११ १ १ ४ ३ २ ३ द्र.११ २११२ म. पंचे. त्रस . आहा. पु. मति- सामा. के.द. शु. म. क्षा. सं. आहा. साका.
श्रुत. छेदो. विना. मा.
३ क्षायो.
प्रम. . सं. प. .
अना.
अव.
शुम.
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