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१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे जोग-आलाववण्णणं कसाय अकसाओ वि अत्थि, मणपजव-विभंगणाणेहि विणा छ णाणाणि, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो असंजमो चेदि दो संजम, चत्तारि देसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, अहवा छहि पजत्तीहि पजत्त-पुव्वसरीरं पेक्खिऊणुवयारेण दव्वेण छ लेस्साओ हवंति । भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, अणाहारिणो, णोकम्मग्गहणाभावादो । कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्त तिण्णि-समय-विरहकालोवलद्धीदो । सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
है, मनःपर्ययज्ञान और विभंगावधिज्ञानके विना छह शान, यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम और असंयम ये दो संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या होती है। अथवा, केवलीके छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त पूर्व शरीरको देखकर उपचारसे द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं । भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक तथा संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है। अनाहारक होते हैं। आहारक नहीं होनेका कारण यह है कि कार्मणकाययोगी जीव नोकर्मवर्गणाओंको ग्रहण नहीं करते हैं।
__ शंका-कार्मणकाययोगकी अवस्था में भी कर्मवर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्मणकाययोगी जीवोंको आहारक क्यों नहीं कहा जाता?
समाधान-ऐसा शंकाकारके कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि, कार्मणकाययोगके समय नोकर्मणाओंके आहारका अधिक से अधिक तीन समयतक विरहकाल पाया जाता है।
आहार आलापके आगे साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
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६अ.
नं. २९०
कार्मणकाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. | इं.का. यो. वे. क. | झा. | संय. । द. ले. भ. स. | संलि. आ.| उ. |
। ६ २ ४द्र.१ २ ५ २ १ २
मन:, असं. शु. म. मि. सं. अना साका. सासा.
यथा. अथ. अ. सा. असं.
अना. अवि.
विना.
क्षा. अनु. यु.उ. सयो.
भा. ६ क्षायो.
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