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संत-पलवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं तेण वचिजोग-णिरुद्ध वि दस पाणा हवंति । चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, वेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, चत्तारि वचिजोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि देसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
___ वचिजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, पंच जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अह पाण सत्त पाण छ पाण, चचारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, बेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, चत्तारि वचिजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दम्व
प्राण होते हैं। प्राण आलापके आगे चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, चारों वचनयोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक तथा संझिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय जीवोंसे लगाकर संशी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी अपेक्षा पांच पर्याप्त जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण और छह प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, प्रसकाय, चारों वचनयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य
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नं. २५०
वचनयोगी जीवोंके आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द.
ले. म. स. संनि. | आ. | उ. ।
क्षीणसं. .
त्रस. 0
अपग.ua अकषा. <8
भा. ६ भ.
सं. आहा. साका.
असं.
अमा.
अयो. द्वा.प. ५ विना.त्री.प.
चतु.प. असं.प. |सं.प.
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यु.उ.
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