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१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
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ओरालिय मिस्स कायजोगीणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणट्टाणाणि, सत्त जीवसमासा, सण असण्णीहिंतो सजोगिकेवली वदिरित्तोति अदीदजीवसमासेण सजोगिणा होदव्यं ? ण, दव्वमणस्स अत्थित्तं भावगद-पुव्यगई च अस्सिऊण तस्स सण्णित्तन्भुवगमादो । पुढवी - आउ-तेउ वाउ पत्तेय साहारण सरीर-तस पज्जत्तापज्जत्त - चोद्दस - जीवसमासाणं सत्त अपज्जत्तजीवसमासेसु सजोगि सत्तन्भुवगमादो वा । एसो अत्थो सव्वत्थ वतव्वो । छ अपज्जतीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दोणि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, दो गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, ओरालियमस्सकायजोगो, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, विभंग-मणपज्जवणाणे हि विणा छ णाणाणि, जहाक्ख दसुद्धिसंजमो असंजमो चेदि दो संजम, चत्तारि दंसण, दव्त्रेण काउलेस्सा । कि कारणं ? मिच्छाइट्ठि-सासण-असंजद
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली ये चार गुणस्थान तथा सात अपर्याप्त जीवसमास होते हैं ।
शंका- जब कि सयोगिकेवली जिनेन्द्र संज्ञी और असंज्ञी इन दोनों ही व्यपदेशोंसे रहित हैं, इसलिए सयोगी जिनको अतीत जीवसमासवाला होना चाहिए ?
समाधान- नहीं; क्योंकि, द्रव्यमनके अस्तित्व और भावमनोगत पूर्वगति अर्थात् भूतपूर्व न्यायके आश्रयसे सयोगिकेवली के संज्ञीपना माना गया है । अथवा, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिक, साधारणशरीरवनस्पतिकायिक और तसकायिक जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्तसंबन्धी चौदह जीवसमासोंमेंसे सात अपर्याप्त जीवसमासोंमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातगत सयोगिकेवलीका सत्त्व माना जानेसे उन्हें अतीत जीवसमासवाला नहीं कहा जा सकता है । यही अर्थ सर्वत्र कहना चाहिए |
जीवसमास आलापके आगे छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण और सयोगिकेवलीके कपासमुद्धात कालमें दो प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है । चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है । विभंगावाध और मनःपर्यय ज्ञान के बिना शेष छह ज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम और असंयम ये दो संयम, चारों दर्शन और द्रव्यसे कापोतलेश्या होती है । शंका- द्रव्यसे एक कापोतलेश्या ही होनेका क्या कारण है ?
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