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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. कसाय अकसाओ वि अत्थि, केवलणाणेण विणा सत्त णाण, सत्त संजम, तिण्णि दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । ___मोसमणजोगीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव खीणसण्णाओ त्ति ताव ममजोगि-भंगो। णवरि एको चेव मोसमणजोगो वत्तव्यो । एवं सच्चमोसमणजोगीणं पि वत्तव्यं ।
वचिजोगीणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, पंच जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण, मण-सरीरपञ्जत्तीहिंतो उप्पण्णसत्तीओ सरीर-मणबलपाणा उच्चंत्ति । ताओ वि उप्पण्णसमयदो जाव जीविदचरिमसमओ त्ति ताव ण विणस्संति । जेण मण-वचि-कायजोगा पाणेसु ण गहिदा
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चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है । केवलज्ञानके विना सात ज्ञान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व. संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मृषामनोयोगी जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके आलाप मनोयोगी जीवोंके आलापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक मृषामनोयोग आलाप ही कहना चाहिए। इसीप्रकार सत्यमृषामनोयोगियोंके भी आलाप कहना चाहिए ।
वचनयोगी जीवोंके आलाप कहने पर--आदिके तेरह गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसंबन्धी पांच पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; संशी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रिय जीवोंतक क्रमशः दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण और छह प्राण होते हैं। मनःपर्याप्ति और शरीरपर्याप्तिसे उत्पन्न हुई शक्तियोंको मनोबलप्राण और कायबलप्राण कहते हैं। वे शक्तियां भी उनके उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जीवनके अन्तिम समयतक नष्ट नहीं होती हैं। और जिसकारणसे मनोयोग, वचनयोग और काययोग प्राणों में नहीं ग्रहण किये गये हैं, इसलिये. वचनयोगियोंके वचनयोगसे निरुद्ध अर्थात् युक्त अवस्थाके होने पर भी दशों
नं. २४९
मृषामनोयोगी जीवोंके आलाप. | गु. जी, | प. प्रा. सं./ ग.) इं.का. यो. | वे.क. | ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | उ. | | १२१६१०४|४|१ |सयो. सं.प
के.ज्ञ. के.द.मा. ६ भ. सं. आहा. साका. अयो.
विना.
विना. अ. विना.
पंचे. त्रस. -
अयोग. अकषा.
अना.
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