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१,१:) संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मणजोगि-अप्पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-भंगो । णवरि चत्तारि मणजोगा वत्तव्या । सजोगिकेवलिस्स सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो इदि दो मणजोगा वत्तव्वा । सच्चमणजोगीणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-मंगो। णवरि सच्चमणजोगो एको चेव वत्तव्यो। एवमसच्चमोसमणजोगीणं पि, णवरि असच्चमोसमणजोगो एको चेव वत्तव्यो ।
___ मोसमणजोगीणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, मोसमणजोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि
ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक मनोयोगी जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान ही हैं, विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय बारहवें गुणस्थानतक चारों ही मनोयोग कहना चाहिए। किन्तु सयोगिकेवलीके सत्यमनोयोग और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय मनोयोग ये दो ही मनोयोग कहना चाहिए।
सत्यमनोयोगियोंके आलाप मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक मूल ओघालापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक सत्यमनोयोग आलाप ही कहना चाहिए । इसीप्रकारसे असत्यमृषा अर्थात् अनुभय मनोयोगियोंके भी आलाप होते हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक असत्यमृषा मनोयोग आलाप ही कहना चाहिए।
मृषामनोयोगी जीवोंके आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, मृषामनोयोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है।
नं. २४८
मनोयोगी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ) ग. इं. का. यो. । वे. क. सा. । संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ.| उ. | २१ ६१०४/१/१/१/४ ।
मति. सामा. के. द. भा. ३ म. | औप. सं. आहा. साका. वत. छेदो. विना. शुभ.
अना. अव. परि.
क्षायो. मनः
स.प.
प्रम.
पंचे..
त्रस.
मनो.
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