Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६३९
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं मण्णमाणे अत्थि पंच' गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि- आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, चत्तारि जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, छण्णाण, चत्तारि संजम,
१, १.]
ली जाती है तब उसकी अपेक्षा पर्याप्त अवस्था में भी छहों योग बन जाते हैं और जब अपर्या प्तता मानली जाती है तब पर्याप्त अवस्था में औदारिक, आहारक और वैक्रियिक ये तीन योग ही बनते हैं । इसीप्रकार आहारमार्गणा के कथनमें पहले आहारक और अनाहारक ये दो आलाप बतलाये हैं अनन्तर एक आहारक आलाप ही बतलाया है । इसका भी कारण यह है कि तेरहवें गुणस्थान में केवल समुद्धातके समय भी पर्याप्तता के स्वीकार कर लेने से आहारक और अनाहारक दोनों आलाप बन जाते है । परंतु कपाट, प्रतर और लोकपूरण अवस्थामें केवल अपर्याप्तताके स्वीकार कर लेने पर अनाहारक आलाप काययोगियोंकी पर्याप्त अवस्था में नहीं बनता है। इसका यह तात्पर्य हुआ कि जब काययोगियोंके पर्याप्त अवस्था में छह योग कहे जावें, तब आहारक और अनाहारक ये दोनों ही आलाप कहना चाहिए और जब केवल तीन योग ही कहे जावें तब एक आहारक आलाप ही कहना चाहिए । सातों संयमों के संबन्धमें भी यही विवक्षा भेद जान लेना चाहिये ।
उन्हीं काययोगी जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण और दो प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीण संज्ञास्थान भी है; चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकामिश्रकाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योगः तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है; चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगाबाध और मनःपर्ययज्ञानके बिना छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और
नं. २५४
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१ प्रतिषु चत्तारि ' इति पाठः ।
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काययोगी जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
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यथा.
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