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संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५८३ अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा सागार. अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चोदस गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण चत्तारि पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव-भावेहि छ लेस्सा अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो णेव सणिणो णेव असणिणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
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भसंशिक तथा संझी और असंझी इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
___उन्हीं पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और असंशी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, चार प्राण और एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक तथा संक्षी और असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
नं. २०२
| गु.) जी. प. प्रा.
सं.
पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. ग. ई. का. यो..वे. क. शा.। संय. द. ले. म. स. ११ ११ म.४ ३/४ ७४ द्र. ६२
भा.६ भ. अले. अ.
सं.प.५ अ.प
क्षीणसं. .
अपग.WAN अकषा.
सैनि. आ. । उ. । २ २ २ सं. आहा. साका. असं. अना. अना.
यु.उ.
औ. १
अनु.
आ.१ अयो.
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