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अणागारुवत्ता वा
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एवं णिव्यत्तिपज्जत्तस्स वि तिणि आलावा वत्तव्या । लद्धिअपज्जत्ताणं पि एगो आलावो पत्तेयवणप्फइ-अपज्जत्ताणं जहा तहा वत्तव्यो । जहा पत्तेयसरीराणं, तहा बादरणिगोदपडिट्ठिदाणं पिवत्तव्वं ।
साधारणत्रणप्फइकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, अट्ठ जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, साधारणत्रणप्फइकाओ, तिष्णि जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हणीलकाउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो,
नं. २२७
गु. जी. प.
१ १ ४ मि. प्र. अ. अ.
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसी प्रकार निर्वृत्तिपर्याप्तक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके भी सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। लब्ध्यपर्याप्तक प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव का एक अपर्याप्त आलाप प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके आलाप के समान कहना चाहिए। तथा, जिसप्रकार अभी प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप कहे हैं, उसी प्रकार से बादरनिगोद-प्रतिष्ठितवनस्पतिकायिक जीवोंके भी आलाप कहना चाहिए
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लक्खंडागमे जीवद्वाणं
साधारण वनस्पतिकायिक जविकेि सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद इन दोनोंके बादर और सूक्ष्म ये दो दो भेद तथा इन चारोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे आठ जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञापं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, साधारणवनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग ये तीन योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शनः द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्य | एं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक,
प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. ! वे. क. ज्ञा. | संय | द.
३ | ४ १ १
त.
१ २
वन.
औ.मि. कार्म.
[ १, १.
१ ४ २
(b)
१ १
द्र. २ |२ कुम. असं अच का. भ. मि. कुश्रु. अ.
शु. मा. ३
अशु.
ले. म. स. संज्ञि. आ. उ.
२
२
असं. आहा. साका. अना. अना.
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