Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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६०६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पुढविकाओ, दो जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह - गील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं,
जीवसमास हो जाते हैं। दूसरा कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वीरसेनस्वामीने स्वयं बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त आलापों के अतिरिक्त बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवों के सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त इसप्रकार तीन प्रकारके आलाप और बतलाये हैं । इनमेंसे प्रथम सामान्यालापमें पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक इन तीनों प्रकारके जीवोंके आलापका अन्तर्भाव हो जाता है और निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके सामान्यालाप में पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक इन दो प्रकार के जीवोंके आलापों का ही अन्तर्भाव होता है। दूसरे पर्याप्तालापकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय दोनों पर्याप्तालापों में वास्तव में कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, निर्वृत्तिसे पर्याप्तक जीव ही दोनों जगह पर्याप्तरूपसे ग्रहण किये गये हैं । अपर्याप्तालापकी अपेक्षा प्रथम अपर्याप्तालाप में निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्त इन दोनों प्रकारके जीवों के आलापोंका अन्तर्भाव होता है । परंतु निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके अपर्याप्तालाप में केवल एक निर्वृत्यपर्याप्तक कालसंबन्धी आलापोंका ही ग्रहण होता है । इनमें से निर्वृत्तिपर्याप्तककी अपर्याप्तावस्था में पर्याप्तनामकर्मका उदय तो रहता है परंतु उसकी पर्याप्तियां पूर्ण न होनेके कारण वह अपर्याप्त कहा जाता है । इसप्रकार निर्वृत्यपर्याप्तक पर्याप्तनामकर्मके उदयकी अपेक्षा पर्याप्त भी है । प्रतीत होता है कि इसी विवक्षाको ध्यान में रखकर वीर सेनस्वामीने यहां पर चार आलाप कहे हैं । यद्यपि प्रथम कल्पना गोम्मटसारकी जीवप्रबोधिनी टीका आधारसे दी गई है परंतु उसकी यहां पर मुख्यता प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि, आगे जलकायिक जीवोंके आलाप पृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान बतलाये हैं । परंतु जल आदि उसी टीकामें शुद्ध आदि भेद नहीं किये हैं । अथवा इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त टीकामें केवल पृथिवीके चार भेद किये गये हों। इसप्रकार पृथिवीकायिक जीवोंके दो या चार जीवसमास जान लेना चाहिये ।
उन्हीं पृथिवीकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त और सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चारों अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति, एकेन्द्रियजाति, पृथिवीकाय, औदारिकामिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व असंज्ञिक,
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