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संत- परूवणाणुयोगद्वारे इंदिय- आलावण्णणं
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दंसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह - गील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
एवं पज्जत - णामकम्मोदय सहियाणं सुहुमेदियणिव्वत्तिपज्जत्ताणं तिणि आलावा वसव्वा । मुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्ताणं पि अपज्जत्तणामकम्मोदय- सहियाणं एओ अपज्जत्तालावो ।
वेदियाणं मण्णमाणे अस्थि एयं गुणद्वाणं, वे जीवसमासा, पंच पत्तीओ पंच अपजत्तीओ, छ पाण चचारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, वेइंदियजादी, तसकाओ, ओरालिय-ओरालियामरस-कम्मइय- असच मोसवचिजोगा इदि चत्तारि जोग, णवुंसयवेद,
असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व असंशिक, आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इसीप्रकार से पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके एक अपर्याप्त आलाप जानना चाहिए ।
द्वीन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रियपर्याप्त और द्वीन्द्रिय- अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां पर्याप्तकालमें स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये छह प्राण, अपर्याप्तकालमें उक्त छह प्राणोंमेंसे वचनबल और श्वासछ्वास के बिना चार प्राण: चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग और असत्यमृषावचनयोग ये चार योगः नपुंसक
नं. १९१
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
१ १ ४ ३ ४ १
मि. सू.अ.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. १ ४ २ १ १ द्र. २ २ १ २ का. भ. मि. असं. कुम. असं. अच. t कुश्रु. शु. अ. भा. ३
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