________________
mm
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं किण्हा भमरसमण्णा णीला पुण णीलगुलियसंकासा । काओ कओदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णा य ॥ २२३ ॥ पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुमसंकासा ।
किण्हादि-दव्यलेस्सा-वण्णविसेसो मुणेयव्यो' ॥ २२४ ॥ भावलेस्सा-लिंगं थोरुच्चएण एसा गाहा जाणावेई -
जिम्मूलखंधसाहुवसाहं बुच्चित्तु वाउ-पडिदाई । अभंतरलेस्साणं भिंदइ एदाई वयणाई ॥ २२५ ।।
कृष्णलेश्या भौरके समान अत्यन्त काले वर्णकी होती है, नीललेश्या नीलकी गोलीके समान नीलवर्णकी होती है, कापोतलेश्या कपोतवर्णवाली होती है, तेजोलेश्या सोनेके समान वर्णवाली होती है, पद्मलेश्या पद्मके समान वर्णवाली होती है और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान श्वेतवर्णकी होती है । इसप्रकार कृष्णादि द्रव्यलेश्याओंके वर्ण-विशेष जानना चाहिए ॥२२३,२२४॥
भावलेश्याओंके स्वरूपका थोडेमें संग्रहरू पसे यह गाथा ज्ञान करा देती है• जड़-मूलसे वृक्षको काटो, स्कन्धसे काटो, शाखाओंसे काटो, उपशाखाओंसे काटो फलोंको तोड़कर खाओ और वायुसे पतित फलोंको खाओ, इसप्रकारके ये वचन अभ्यन्तर अर्थात् भावलेश्याओंके भेदको प्रकट करते हैं ॥२२५॥
विशेपार्थ-गोम्मटसार जीवकांडमें उक्त अर्थ इस प्रकारसे स्पष्ट किया गया है कि फलोंसे लदे हुए वृक्षको देखकर कृष्णलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षको जड़-मूलसे उग्याड़कर फलोंको खाना चाहिये । नीललेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षको स्कन्ध अर्थात् मूलसे ऊपरके भाग को काटकर फलोंको खाना चाहिये । कापोतलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षकी शाखाओंको काटकर फलोंको खाना चाहिये । तेजोलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षकी उपशाखाओंको काटकर फलोंको खाना चाहिये । पद्मलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षके फलोंको तोड़कर खाना चाहिये । शुक्ललेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षके वायुसे गिरे हुए फलोंको खाना चाहिये । उक्त प्रकारके भावोंसे छहों लेश्याओंके तारतम्यको जान लेना चाहिये ।
१ 'णीला पुण' इति स्थाने ' आ, क ' प्रत्योः गीलायण ' इति पाठः । 'अ' प्रतीणीलाघण' इति पाठः ।
२ पंचसं. १, १८१.१८४. ( दि. हस्तलिखित)
___३ जिम्मूलबंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु परिदाई । खाउं फलाई इदि जंगणेण वयणं हवे कम्मं ॥ गो. जी. ५०८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org