Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५३५ भावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो । आहारसरीराणं धवलवण्णाणं विग्गहगदि-ट्टिय-सव्वजीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्कलेस्सावत्तीदो चेव । किं च, दव्यलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो । ण च दोण्हमेगत्तं णाम, वण्णणाम-मोहणीयाणं अधादि-घादीणं पोग्गल-जीवविवागीणं एगत्त-विरोहादो । विस्ससोवचयवण्णो भावलेस्सादो भवदि, ओरालिय-उब्धिय-आहारसरीराणं वण्णा वण्णणामकम्मादो भवंति, अदो ण एस दोसो । इदि ण, 'चंडो ण मुयदि वेरं' इच्चादि-बाहिरकज्जुप्पायणे हिदिबंधे पदेसबंधे च भावलेस्सा-वावार-दसणादो । अदो दवलेस्साए ण कारणं भावलेस्सा ति सिद्धं । तदो वण्णणामकम्मोदयदो भवणवासिय-वाण-तर-जोइसियाणं दव्वदो छ लेस्साओ भवंति, उवरिमदेवाणं तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ भवंति । पंच-वण्ण-रस-कागस्स कसणववएसो व्य एगवण्ण-ववहार-विरोहाभावादो । भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया
पनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। और यदि द्रव्यलेश्याके अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाय, तोधवलवर्णवाले बगुलेके भी भावसे शुक्ललेश्याका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवलवर्णवाले आहारक शरीरोंके और धवलवर्णवाले विग्रहगतिमें विद्यमान सभी जीवोंके भावकी अपेक्षासे शुक्ललेश्याकी आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्णनामा नामकर्मके उदयसे होती है, भावलेश्यासे नहीं। इसलिये दोनों लेश्याओंको एक कह नहीं सकते; क्योंकि, अघातिया और पुद्गलविपाकी वर्णनामा नामकर्म, तथा घातिया और जीवविपाकी (चारित्र ) मोहनीय कर्म इन दोनोंकी एकतामें विरोध है। यदि कहा जाय कि कौके विस्रसोपचयका वर्ण तो भावलेश्यासे होता है, और औदारिक, वैक्रियिक, आहारकशरीरोंके वर्ण वर्णनामा नामकर्मके उदयसे होते हैं, इसलिए हमारे कथनमें यह उक्त दोष नहीं आता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, 'कृष्णलेश्यावाला जीव चंडकर्मा होता है, वैर नहीं छोड़ता है' इत्यादि रूपसे बाहरी कार्यों के उत्पन्न करनेमें, तथा स्थितिबन्ध और प्रदेशबन्धमें ही भावलेश्याका व्यापार देखा जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध होती है कि भावलेश्या द्रव्यलेश्याके होनेमें कारण नहीं है। इसप्रकार उक्त विवेचनसे यह फलितार्थ निकला कि वर्णनामा नामकर्मके उदयसे भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं, तथा भवनात्रकसे ऊपरके देवोंके तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। जैसे पांचों वर्ण और पांचों रसवाले काकके अथवा पांचों वर्णवाले रसोंसे युक्त काकके कृष्ण व्यपदेश देखा जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें द्रव्यसे छहों लेश्याओंके होने पर भी एक वर्णवाली लेश्याके व्यवहार करने में कोई विरोध नहीं आता है।
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१ प्रतिषु 'वण्णणाम' इति पाठो नास्ति ।
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