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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५५९ तेसिं चेव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्क लेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं । देवासंजदसम्माइट्ठीणं कधमपजत्तकाले उवसमसम्मत्तं लभदि ? बुच्चदे-वेदगसम्मत्तमुवसामिय उवसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरिय पमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उवसमसम्माइट्ठि-हाणेहि मज्झिम-तेउलेस्सं परिणमिय कालं काऊण सोधम्मीसाग-देवेसुप्पण्णाणं अपजत्तकाले उघसमसम्मत्तं लब्भदि। अध ते चेव उक्कस्स-तेउलेस्सं वा जहण्ण-पम्मलेस्सं वा परिणमिय जदि कालं करेंति तो उबसमसम्मत्तेण सह सणकुमार माहिंदे उप्पाजंति । अध ते चेव उवसमसम्माइट्ठिणो मज्झिम-पम्मलेस्सं परिणामय कालं करेंति तो बह्म-बह्मोत्तर-लांतवकाविट्ठ-सुक्क महासुक्कसु उपजंति । अथ उक्कस्स-पम्मलेस्सं वा जहण्ण-सुक्कलेस्सं वा परिणमिय जदि ते कालं करेंति तो उअसमसम्मत्तेण सह सदार-सहस्सारदेवेसु उप्पजंति ।
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सोधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञापं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, जसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम तेजोलेश्याः भन्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं। ____शंका ... असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालमें औपमिकसम्यक्त्व कैसे पाया जाता है ?
समाधान-वेदकसम्यक्त्वको उपशमा करके और उपशमश्रेणी पर चढ़कर फिर वहांसे उतर कर प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, असंयत और संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंसे मध्यम तेजोलेश्याको परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्प. वासी देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके अपर्याप्तकालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा, उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव उत्कृष्ट तेजोलेश्याको अथवा जघन्य पद्मलेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो औपशमिकसम्यक्त्वके साथ सनत्कुमार और महेन्द्र कल्पमें उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मध्यम पद्मलेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र और महाशुक्र कल्पोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट पद्मलेश्याको अथवा जघन्य शुक्ललेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो औपशमिकसम्यक्त्वके साथ शतार,
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