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५२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. मणुसिणी-चउत्थ-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, दो कसाय, तिणि णाण, अग्गि-दद्ध-बीए अंकुरो व्व इत्थि णबुंसयवेदोदय-दृसिय-जीवे वेदोदए फिट्टे वि ण मणपजवणाणमुप्पजदि। दो संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणी, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
मणुसिणी-पंचम-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
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अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके चतुर्थ भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परि. ग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग ये नौ योग; अपगतवेद, माया और लोभ ये दो कषाय, आदिके तीन ज्ञान होते हैं। यहांपर स्त्रीवेदके नष्ट हो जाने पर भी मनःपर्ययज्ञानके नहीं होनेका कारण यह है कि जैसे अग्निसे दग्ध हुए बीजमें अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसीप्रकार स्त्री और नपुंसकवेदके उदयसे क्षित जीवमें, वेदोदयके नष्ट हो जाने पर भी, मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसलिये यहां पर भी तीन ज्ञान ही कहे गये हैं। ज्ञान आलापके आगे सामा. यिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संझिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
___ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके पंचम भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण एक परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग
नं १३२ अनिवृत्तिकरणके चतुर्थभागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. । गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. सय. द. ले. म | स. संज्ञि. आ. | उ.। 1११६१०१ १ १ १ ९ . २ ३ २ ३ द्र. ६ | १ २ १ १ २ अ. सं. प. म. पंचे. त्रस. म.४ : माया मति. सामा.के.द. भा. १भ. औ. सं. आहा. साका. च. प. . श्रुत. छेदो. विना. शु. क्षा
अना.
अपग...
अव.
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