Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४४३ सप्पओजणो णिप्पाजणो ? ण विदिय-पक्खो, पुप्फयंत-बयण-विणिग्गयस्स णिप्फलत्तविरोहादो । ण चेदस्स सुत्तस्स णिचत्त-पयासण-फलं, णियम-सद्द-वदिरित्त-सुत्ताणमणिच्चत्तप्पसंगादो । ण च एवं, ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं, त्ति सुत्ते णियमाभावेण अपज्जत्तेसु वि ओरालियकायजोगस्स आत्थित्त-प्पसंगादो । तदो णियम-सद्दो णावओ। अण्णहा अणत्थयत्त-प्पसंगादो । किमेदेण जाणाविज्जदि ? ' सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजदसंजद-हाणे णियमा पज्जत्ता' त्ति एदं मुत्तमणिचमिदि तेण उत्तरसरीरमुट्ठाविदसम्मामिच्छाइट्टि-संजदासंजद संजदाण कवाड-पदर-लोगपूरण-गद-सजोगीणं च सिद्धम
है' यह सूत्र बाधा जाता है, उसीप्रकार पूर्व अर्थात् 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है ' इस सूत्रसे संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र भी बाधा जाता है, अतः शंकाकारके पूर्वोक्त कथनमें अनेकान्त दोष आ जाता है।
शंका-जब कि कपाट-समुद्धातगत केवली-अवस्थामें अभिप्रेत होनेके कारण 'औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है' यह सूत्र पर है तो 'संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, इस सत्र में आये हुए नियम शब्दकी क्या सार्थकता रह गई ? और ऐसी अवस्थामें यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उक्त सूत्रमें आया हुआ नियम शब्द सप्रयोजन है कि निष्प्रयोजन ?
समाधान-इन दोनों विकल्पोंमेंसे दूसरा विकल्प तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि पुष्पदन्तके वचनसे निकले हुए तत्त्वमें निरर्थकताका होना विरुद्ध है । और सूत्रकी नित्यताका प्रकाशन करना भी नियम शब्दका फल नहीं हो सकता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर जिन सूत्रोंमें नियम शब्द नहीं पाया जाता है उन्हें अनित्यताका प्रसंग आ जायगा। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि. ऐसा माननेपर । औदारिककाययोग पर्याप्तकोंके होता है । इस सूत्रमें नियम शब्दका अभाव होनेसे अपर्याप्तकोंमें भी औदारिककाययोगके अस्तित्वका प्रसंग प्राप्त होगा, जो कि इष्ट नहीं है। अतः सूत्रमें आया हुआ नियम शब्द ज्ञापक है नियामक नहीं। यदि ऐसा न माना जाय तो उसको अनर्थकपनेका प्रसंग आ जायगा।
शंका-इस नियम शब्दके द्वारा क्या ज्ञापित होता है ?
समाधान-इससे यह ज्ञापित होता है कि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं ' यह सूत्र अनित्य है। अपने विषयमें सर्वत्र समान प्रवृत्तिका नाम नित्यता है और अपने विषयमें ही कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। इससे उत्तरशरीरको उत्पन्न करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और संयतासंयतोंके तथा कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवलियोंके अपर्याप्तपना
१ कृताकृतप्रसंगि नित्यं तद्विपरीतमनित्यम् । परि. शे. पू. २५०. २ जी. से. सू. ७६.
३ जी. सं. सू. ९०. ४ प्रतिषु 'मि तेण ' इति पाठः।
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