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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४४७ अप्पपाणो । खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण अलेस्सा; लेव-कारण-जोग-कसायाभावादो। भवसिद्धिया, खइयसम्माइट्टिणो, णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा हति ।
सिद्धाणं ति भण्णमाणे अत्थि एयं अदीद-गुणहाणं, अदीद-जीवसमासो, अदीदपज्जत्तीओ, अदीद पाणा, खीणसण्णा, सिद्धगदी, अणिंदिया, अकाया, अजोगिणो, अवगदवेदा, खीणकसाया, केवलणाणिणो, णेव संजदा व असंजदा णेव संजदासंजदा, केवलदंसण, दव्य-भावहिं अलेस्सिया, णेव भवसिद्धिया, खइयसम्माइट्ठिणो, णेव सणिणो
वह यहां भी पाया जाता है, इसलिये तो वह मुख्य प्राण है। फिर भी जीवनका अवस्थान अल्प है। और अवस्थानके कारणभूत नये कर्मोंका आना, योगप्रवृत्ति आदि भी नष्ट हो गये हैं, अतः आय भी इस अपेक्षासे औपचारिक प्राण कहा जाता है। इसप्रकार अयोगियोंके उपचारसे एक या छह या सात प्राण कहे गये हैं।
प्राण आलापके आगे-क्षीणसंशा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे लेट्यारहितस्थान होता है। लेश्याके नहीं होनेका यह कारण है कि कर्म-लेपके कारणभूत योग और कषाय, इन दोनोंका ही उनके अभाव है। लेश्या आलापके आगे-भव्यसिद्धिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संशी और असंही विकल्पसे रहित, अनाहारक, साकारोपयोग तथा अना. कारोपयोग इन दोनों ही उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
सिद्धपरमेष्टीके ओघालाप कहनेपर-एक अतीत-गुणस्थान, अतीत-जीवसमास, अतीत पर्याप्ति, अतीत-प्राण, क्षीण,संज्ञा, सिद्धगति, अनिन्द्रिय, अकाय, अयोगी, अवेदी, क्षीणकषाय, केवलज्ञानी, संयत, असंयत और संयतासंयत विकल्पोंसे विमुक्त; केवलदर्शनी, द्रव्य और भावसे अलेश्य, भव्यसिद्धिक विकल्पातीत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संक्षी और असंझी इन दोनों
नं. २६
अयोगिकेवलीके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे. के. ना. संय. द. ले. भ. स. (संझि. आ. | उ..
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