Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलाववण्णणं
[ ४७१
एदाओ दो लेस्साओ पंचम - पुढवी- रइयाणं भवंति । छट्टीए पुढवीए रइयाणं मज्झिमकिण्हलेस्सा भवदि । सत्तमीए पुढवीए णेरइयाणं उक्कस्सिया किण्हलेस्सा भवदि ।
तिरिक्खगईए तिरिक्खाणं भण्णमाणे तिरिक्खा पंचविधा भवंति, तिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खपजत्ता पंचिदियतिरिक्खजोगिणी पंचिदियतिरिक्खअपजचा चेदि । तत्थ तिरिक्खाणं भण्णमाणे अस्थि पंच गुणट्ठागाणि, चोहस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जतीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एईदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छकाय, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया अमवसिद्धिया, छ सम्मत्ताणि, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारु
गया है । अतएव पांचवी पृथिवीके पांचवें इन्द्रक बिलमें ही उत्कृष्ट नलिलेश्या और जघन्य कृष्णलेश्या बन सकती है। इसप्रकार ये दोनों ही लेश्याएं पांचवीं पृथिवीके नारकी जीवोंके होती हैं । छठी पृथिवीके नारकोंके मध्यम कृष्णलेश्या होती है। सातवीं पृथिवीके नारकोंके उत्कृष्ट कृष्णलेश्या होती है ।
इसप्रकार नरकगतिके आलाप समाप्त हुए ।
अब तियंचगतिके आलापोंको कहते हैं । तिर्यंच पांच प्रकारके होते है, १ तिर्यंच, २ पंचेन्द्रिय तिर्यच, ३ पंचेन्द्रिय पर्याप्त निर्यच, ४ पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच, और ५ पंचेन्द्रिय लग्भ्यपर्याप्त तिर्यच । इनमेंसे सामान्य तिर्यत्रों के आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, चौदह जीवसमास, संशीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशी और विकलत्रयोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके दशों प्राण, सात प्राणः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके नौ प्राण, सात प्राणः चतुरिन्द्रिय जीवोंके आठ प्राण, छह प्राणः त्रीन्द्रिय जीवोंके सात प्राण, पांच प्राणः द्वीन्द्रिय जीवोंके छह प्राण, चार प्राणः और एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण, तीन प्राणः क्रमशः पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं। चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org