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४८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं । केण कारणेण ? तिरिक्ख-सजदासजदा दसणमोहणीयं कम्मं ण खवेंति, तत्थ जिणाणमभावादो । मणुस्सा पुवं बद्ध-तिरिक्खायुगा खइयसम्माइट्ठिणो कम्मभूमीसु ण उपजंति किंतु भोगभूमीसु । भोगभूमीसुप्पण्णा वि ण संजमासंजमं पडिवज्जंति, तेण तिरिक्ख-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्मत्तं णत्थि । सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।।
पंचिंदिय-तिरिक्खाणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह
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विना दो सम्यक्त्व होते हैं। क्षायिकसम्यक्त्वके नहीं होनेका कारण यह है कि संयतासंयत तिर्यंच दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण नहीं करते हैं, क्योंकि, वहांपर जिन अर्थात् केवली या श्रुतकेवलीका अभाव है। और पूर्वमें तिर्यंच आयुको बांधकर पीछे क्षायिकसम्यग्दृष्टि होनेवाले मनुष्य कर्मभूमियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; किन्तु भोगभूमियोंमें ही उत्पन्न होते हैं। परंतु भोगभूमियोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच संयमासंयमको प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिये तिर्यचोंके संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व आलापके आगे संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके पांच गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संज्ञी-अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियोंके छहाँ पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, संझी पंचेन्द्रियोंके दशों प्राण, सात प्राण; असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों चंद,
नं. ७२
सामान्य तिर्यंच संयतासंयत जीवोंके आलाप.
। गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. 'वे. क. ज्ञा.
संय. द.
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मति. देश. के.द. मा.३ भ. औप. सं. : आहा. साका. . श्रुत. विना. शुभ. क्षाया.
अना. अव..
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