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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५०३ वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, अजोगि-भयवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणूणमभावं पेक्खिऊण पज्जत्ताणमणाहारित्तं लब्भदि । सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता बा सागार-अणागारहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
भी स्थान है; आहारक, और अनाहारक भी होते हैं। मनुष्योंके पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंका अभाव देखकर पर्याप्तक मनुष्योंके भी अनाहारकपना बन जाता है। साकारोपयोगी अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर योग आलापका कथन करते हुए वैक्रियिकद्विक, आहारकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोगके विना दश अथवा केवल वैक्रियिकद्विकके विना तेरह योग बतलाये हैं । दश योग तो मनुष्योंकी पर्याप्त-अवस्थामें होते ही हैं, परंतु अपर्याप्त अवस्थामें होनेवाले औदारिकमिश्र आहारकमिश्र और कार्मणकाययोगको मनुष्योंकी पर्याप्त अवस्थामें बतानेका यह कारण है कि यद्यपि तेरहवें गुणस्थानमें समुद्धातके समय योगोंकी अपूर्णता रहती है फिर भी उस समय पर्याप्त नामकर्मका उदय विद्यमान रहता है और शरीरकी पूर्णता भी रहती है, इसलिये पर्याप्त-नामकर्मके उदय और शरीरकी पूर्णताकी अपेक्षा कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातगत केवली भी पर्याप्त हैं और इसप्रकार पर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्र तथा कार्मणकाययोग बन जाते हैं। इसीप्रकार छठवें गुणस्थानमें आहारमिश्रकाययोगके समय भी पर्याप्त नामर्कमका उदय रहता है, इसलिये ऐसा निवृत्तिसे अपर्याप्त होता हुआ भी जीव पर्याप्त-नामकर्मके उदयकी अपेक्षा पर्याप्त ही है; अतः आहारमिश्रकाययोग भी पर्याप्त-अवस्थामें बन जाता है । इसप्रकार उपर्युक्त तीनों योग विवक्षा भेदसे पर्याप्त-अवस्थामें भी बन जाते हैं इसलिये मनुष्योंकी पर्याप्त-अवस्थामें तेरह योग भी गिनाये हैं।
नं.१०१
सामान्य मनुष्योंके पर्याप्त आलाप.
ब. क. ना. संय.
दै. ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ. |
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. १०४१ ११ १३
वै.२ विना. १०म.४
व.४ औ.१आ..
सं. प. -
पंचे. ... त्रस. -
अपग.mar अकषा.
क्षीणसं.
भा.६ भ. अले. अ
सं. आहा. अनु. अना.
साका. अना. यु.उ.
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