Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४७३ तिण्णि देसण, दव्य-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होति ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिणि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छ काया, बे जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा पंच णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्प्ता, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ । कि कारणं ? जेण तेउ-पम्मलेस्सिया वि देवा तिरिक्खेसुप्पजमाणा णियमेण णट्ठ-लेस्सा भवंति त्ति । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं सासणसम्मत्तं खइयसम्मत्तं कदकरणिजं पडुच्च वेदगसम्मत्तं एवं चत्तारि सम्मत्तं,
सिद्धिक, अभव्यसिद्धिका सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंचोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, अपर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके छहों अपर्याप्तियां, असंही पंचेन्द्रियों और विकलत्रयोंके पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार अपर्याप्तियां, संशी पंचेन्द्रियोंके सात प्राण, असंही पंचेन्द्रियोंके सात प्राण, चतुरिन्द्रियोंके छह प्राण, त्रीन्द्रियोंके पांच प्राण, द्वीन्द्रियोंके चार प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके तीन प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञानके विना पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण नील और कापोत लेश्याएं, होती हैं।
शंका-सामान्य तिर्यंचोंके अपर्याप्तकालमें तीनों अशुभ लेश्याएं ही क्यों होती हैं ?
समाधान-क्योंकि, तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले भी देव यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो नियमसे उनकी शुभलेश्याएं नष्ट हो जाती हैं, इसलिये तिर्यचोंकी अपर्याप्त अवस्थामें तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं।
लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व और कृतकृत्यकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्व इस प्रकार चार सम्यक्त्व, संझिक,
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