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१७.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
एवं तदिय-पुढवि-आदि जाव सत्तम-पुढवि ति चदुण्हं गुणहाणाणमालावो वत्तव्यो। णवरि विसेसो तदियाए णवण्हं इंदयाणं मज्झे उवरिम अट्ठसु इंदएसु उक्कस्सिया काउलेस्सा भवदि । हेट्ठिमए णवमे इंदए केसिंचि जीवाणमुक्कस्सिया काउलेस्सा केसिंचि जहणिया णीललेस्सा । कुदो ? जहण्णुक्कस्स-णील-काउलेस्साणं सत्त-सागरोवमकाल-णिदेसादो। तेण तदिय-पुढवीए उक्कस्सिया काउलेस्सा जहणिया णीललेस्सा च वत्तव्या। चउत्थीए पुढवीए मज्झिमा णीललेस्सा। पंचमीए पुढवीए चउण्हमुवरिम-इंदयाणं उक्कस्सिया णीललेस्सा चेव भवदि । पंचए उक्कस्सिया णीललेम्मा जहण्णा किण्हलेस्सा च भवदि । कुदो ? जहणुक्कम्स-किगह-णीललेम्माणं मत्तारम-मागरोवम-काल-णिमादो ।
सायिकसम्यक्त्वके विना औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व. संशिक. आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकार तृतीय-पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमे चारों गुणस्थानोंके आलाप कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि तृतीय पृथिवीके नो इन्द्रक बिलोंमेंसे ऊपरके आठ इन्द्रक बिलोंमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या होती है और नीचेके नौवें इन्द्रक बिलमें कितने ही नारकी जीवोंके उत्कृष्ट कापोतलेश्या होती है, तथा कितने ही नारकोंके जघन्य नीललेश्या होती है, क्योंकि, जघन्य नीललेश्या और उत्कृष्ट कापोतलेश्याकी सात सागरोपम स्थितिका आगममें निर्देश है। अतएव तीसरी पृथिवीके नौवें इन्द्रक बिल में ही उत्कृष्ट कापोत और जघन्य नीललेश्या बन सकती है। इसप्रकार तृतीय पृथिवीमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या और जघन्य नलिलेश्या कहना चाहिए। चौथी पृथिवीमें मध्यम नीललेश्या है। पांचवीं पृथिवीके पांच इन्द्रक बिलोंमेंसे ऊपरके चार इन्द्रक बिलोंमें उत्कृष्ट नाललेल्या ही है,
और पांचवें इन्द्रक बिलमें उत्कृष्ट नील लेश्या तथा जघन्य कृष्णलेश्या है, क्योंकि, जघन्य कृष्णलेश्या और उत्कृष्ट नीललेश्याका आगममें सत्रह सागरप्रमाण कालका निर्देश किया
नं. ५८ द्वितीयपृथिवी-नारक असंयतसम्यग्दृष्टि आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग.) ई.का. यो. वे. क. ज्ञा संय | द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
१६ १० ४ १ १ | १९ १४ ३ १ ३ द्र.१ १ २ १ १ २ अवि.संप. । न. पंचे. त्रस. म. ४ . मति. असं. के.द. कृ. भ. औप. सं. आहा. साका. । श्रुत. विना भा. १ . क्षायो.
अना. अव.
का.
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