Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
। १, १. विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । पढमादि-सत्तरहं पुढवीणं लेस्साओ जाणावेई एसा गाहा
काऊ काऊ काऊ णीला णीला य णील-किण्हा य ।
किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुटवीण ॥ २२२ ॥ पढमाए पुढवीए णेरइयाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमामा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि मण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तमकाओ, एगारह जोग, णमयवेद, चत्तारि कमाय,
संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रथमादि सातों पृथिवियोंकी लेश्याओंको यह निम्न गाथा बतलाती है--
कापोत, कापोत, कापोत और नील, नील, नील और कृष्ण, कृष्ण तथा परमकृष्ण लेश्या प्रथमादि प्रथिवियोंमें क्रमशः जानना चाहिये ॥ २२२ ॥
विशेषार्थ-प्रथम पृथिवी में जघन्य कापोतलेश्या होती है। दूसरी पृथिवीमें मध्यम कापोतलेश्या होती है। तीसरी पृथिवीमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या और जघन्य नीललेश्या होती है। चौथी पृथिवीमें मध्यम नीललेश्या होती है। पांचवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट नीललेश्या और जघन्य कृष्णलेश्या होती है। छठी पृथिवीमें मध्यम कृष्णलेश्या होती है और सातवीं पृथिवीमें परमकृष्णलेश्या होती है।
प्रथम-पृथिवी-गत नारकोंके सामान्य आलाए कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संजी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राणः चारों संशाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह
१ गो. जी. ५२९. प्रतिपु — काउ काउ तह काओ णीलं णीला यं णील किण्हा य ' इति पाठः । नं. ३८
नारकसामान्य-असंयतसम्यग्दष्टि अपर्याप्त आलाप.
अकि.-16
गु. जी.प.प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. झा. | संयः। द. | ले. भ. स. संक्षि. आ. उ, ।
४११ २ १ ४ ३ | १ | ३ द.२१/ २१ २२ सं.अ. न. स. वै. मि. न. मति. असं. के. द. का. भ. क्षा. सं. आहा. साका.
करम. श्रुत. विना | शु. क्षायो अना. अना. अव.
भा.३ | अशु.
अप. MA अप. Gy
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