Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[ ४४१ छ अपञ्जत्तीओ, केवली कवाड-पदर-लोगपूरण-गओ पञ्जत्तो अपञ्जत्तो वा ? ण ताव पज्जत्तो, 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' इच्चेदेण मुत्तेण तस्स अपजत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपजत्ता 'सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता' त्ति सुत्त-णिदेसादो। ण, आहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पजत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं, 'आहारमिस्तकायजोगो अपजत्ताणं, त्ति सुत्तेण तस्स अपजत्तभाव-सिद्धीदो। अणवगासत्तादों एदेण सुत्तेण
शंका-कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त ?
समाधान--उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है, इस सूत्रसे उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिये वे अपर्याप्तक ही हैं।
शंका-'सम्याग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, इस प्रकार सूत्र-निर्देश होनेके कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगीको छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। यहां शंकाकारका यह अभिप्राय है कि औदारिकमिश्रयोगवाले जीव अपर्याप्तक होते हैं यह सामान्य विधि है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयत जीव पर्याप्तक होते हैं यह विशेष विधि है और संयतों में सयोगियोंका अन्तर्भाव हो ही जाता है अतएव · विशेषविधिना सामान्यविधिर्बाध्यते' इस नियमके अनुसार उक्त विशेष-विधिसे सामान्य-विधि बाधित हो जाती है जिससे कपाटादि समुद्धातगत केवलीको अपर्याप्त सिद्ध करना असंभव है ?
समाधान- ऐसा नहीं है. क्योंकि, यदि 'विशेष-विधिसे सामान्य-विधि बाधित होती है। इस नियमके अनुसार 'औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक होते हैं। यह सामान्य-विधि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि पर्याप्तक होते हैं। इससे बाधी जाती है तो आहारमिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतोंको भी पर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि, वे भी संयत हैं । किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है। इस सूत्रसे वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं।
शंका-आहारमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है' यह सूत्र अनवकाश है,
१ जा. सं सू. ७६.२ जी. सं. सू. ९०, ३ जी. सं. सू. ७८
४ अन्तरंगादप्यपवादो वीयान् । परि. शे. पृ. ३५८. येन नाप्राप्त यो विधिरारभ्यते स तस्य वाधको भवति । येन नाप्राप्ते इत्यस्य यत्कर्तृकावश्यकप्राप्तावित्यर्थो नद्वयस्य प्रकृतार्थदाढर्थबोधकत्वात् । एवं च विशेषशास्त्रोदेश्यविशेषधर्मावच्छिन्नवृत्तिसामान्यधर्मावच्छिन्नाद्देश्यकशास्त्रस्य विशेषशाखेण वाधः । तदप्राप्तियोग्येऽचारितार्थं घेतस्य वाधक वे वीजम् । परि. शे ३५९, ३६८.
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