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संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालावण्णणं
सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
वसंतकसायाण मोघालावे भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्टाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, उवसंतसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, व जोग, अवगदवेदो, उवसंतकसाओ, चत्तारि णाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; केण कारणेण सुक्कलेस्सा ? कम्म-णोकम्मलेव- णिमित्त-जोगो अस्थि त्ति । भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारु
औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती जीवोंके ओघालाप कहने पर - एक ग्यारहवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, उपशान्तसंज्ञा होती है। संज्ञाके उपशान्त होने का यह कारण है कि यहांपर मोहनीय कर्मका पूर्ण उपशम रहता है, इसलिये उसके निमित्तसे होनेवाली संज्ञाएं भी उपशान्त ही रहती हैं, अतएव यहां उपशान्तसंज्ञा कही । आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग, अपगतवेद, उपशान्तकषाय, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, यथाख्यातशुद्धिसंयम, केवलदर्शन के विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या होती है ।
शंका- जब कि इस गुणस्थानमें कषायों का उदय नहीं पाया जाता है, तो फिर यहां शुक्ललेश्या किस कारण से कही ?
समाधान- यहां पर कर्म और नो कर्मके लेपके निमित्तभूत योगका सद्भाव पाया जाता है, इसलिये शुक्ललेश्या कही है ।
लेश्याके आगे भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक,
नं. २२
सूक्ष्मसाम्पराय -आलाप
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